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Wednesday 28 March 2012

सपनों को पकड़ने की कवायद


नील पर  टंगे खजाने और नीचे भागती दुनिया
साँसों की गर्मी और जिस्म की ठंडक 
जैसे बचा लेगी उस लम्हे को 
तेज़ क़दमों से 















लपक लेगी और हाथ में पकड़ 
जैसे कभी न जाने देगी 

घूर के देखेगी 
और साँसों में कैद कर 
इस मकड जाल में खुद एक पांव रख देगी 

ऐसी हीं है यह 

वरना कोई कब लम्हों को पकड़ पाया है 

अँधेरे शाम में बैठे उस मेज़ पर जब भी कोई आँखें नीचे करके 
सोचने की कोशिश करता है आगे की 
शाम ढक लेती है उसे 
और दबे पांव 
उसके जिस्म में समां कर 
आँखों के सामने कुहासा भर देती है 

चुनौती है समय की 
सोचो तो एक बार सही 
और पल भर में सारे जहान की तस्वीरें 
किसी काली रात में कोई रूह की तरह 
आगे पीछे, ऊपर नीचे 
घूमने लगेंगी 

मेज़ पर बैठा 
सोच का पुतला 
समय के रेत में बह जाएगा 

स्याह रात में जो नील पर रौशनी है 
बुलाती है; न्योता है उनका 
पल भर को सारी तमन्ना भूल जाने के लिये 

सर जब उठा के देखोगे 
सपने, सच में बदले 
छोटे-छोटे चिंगारियों में तब्दील 
आँखों को मटोलेंगे 






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