साँसों की गर्मी और जिस्म की ठंडक
जैसे बचा लेगी उस लम्हे को
तेज़ क़दमों से
लपक लेगी और हाथ में पकड़
जैसे कभी न जाने देगी
घूर के देखेगी
और साँसों में कैद कर
इस मकड जाल में खुद एक पांव रख देगी
ऐसी हीं है यह
वरना कोई कब लम्हों को पकड़ पाया है
अँधेरे शाम में बैठे उस मेज़ पर जब भी कोई आँखें नीचे करके
सोचने की कोशिश करता है आगे की
शाम ढक लेती है उसे
और दबे पांव
उसके जिस्म में समां कर
आँखों के सामने कुहासा भर देती है
चुनौती है समय की
सोचो तो एक बार सही
और पल भर में सारे जहान की तस्वीरें
किसी काली रात में कोई रूह की तरह
आगे पीछे, ऊपर नीचे
घूमने लगेंगी
मेज़ पर बैठा
सोच का पुतला
समय के रेत में बह जाएगा
स्याह रात में जो नील पर रौशनी है
बुलाती है; न्योता है उनका
पल भर को सारी तमन्ना भूल जाने के लिये
सर जब उठा के देखोगे
सपने, सच में बदले
छोटे-छोटे चिंगारियों में तब्दील
आँखों को मटोलेंगे
No comments:
Post a Comment