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Tuesday, 27 March 2012

उड़ते-उड़ते

उड़ते उड़ते
देखे ऐसे सपने
सच को टक्कर देते
मतवाले ऐसे |

जहाँ में और भी बहुत देखे थे ऐसे सपने,
मगर यकीन ना था कि ये इक हो जायेंगे ऐसे अपने |

रेत की तरह चिपक रही थी चेहरे पे आके
उड़ते -उड़ते , टकरा रही थी महलों के किनारे
मीनारों की गोल गुम्बदों के चारो ओर घूम रही ऐसे
मानो की अब गिरेगी या तब, ज़मीन पे आके |

पूछा जब मैंने की कहाँ  हो जा रही हो,
अपनी  खुश्की में किसको समेट रही हो,
और ज़ोर से चलने लगी हवा
उड़ते-उड़ते, कहने लगी हवा:

आज का दिन , सपनों का दिन है
आज दिन, दिन नहीं, एक सपना है
उड़ना चाहती हूँ इस रेत के साथ
फिजाओं  में, आसमां में;

पंख लगे हैं मेरे आज
तितलियों सी चाल है मेरी आज
मत रोको, मत पूछो
घूमने दो मुझे आज

और फिर वही रेत जा टकराई,
उस ऊँचाई  से जिसकी मुझे हमेशा से तलाश थी
और उसके चेहरे पे चिपक गयी
मानो की अब गिरेगी या तब |





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