वो सीढ़ियों से उतरते आ रही थी |
कोने पे मुड़ी, और मैंने देखा उसे ,
वो सीढ़ियों का बोझ उठाये आ रही थी |
इक पांव उठी, दूसरी मुड़ी ,पहली गिरी,
वो बहुतेरे सीढ़ियों से, लडखडाए आ रही थी |
उन पैरों के साथ, जब उसके पायल के मोतीयों ने झनक की,
उसे सीढ़ीओं पे साहरों के ज़रुरत की याद आ रही थी |
ऐसा तो नहीं था सहारे सहारा देते थे,
सीढ़ियां उससे और वो सीढ़ीओं से सौदा कर रही थी |
उसके क़दमों को चूमती, वो सीढ़ी, खुद को नसीब वाली समझ रही थी ,
वो पांव से किसी को ठुकरा कर भी, मसीहा बन रही थी |
waah dost! kya observe karte ho tum dinchrya ke chhote-chhote lamhe aur fir unke maayne hi badal dete ho :)
ReplyDeletethanks, sahi , sahi soche, ye moment sach ka tha, wo lamha yaad hai, baaki sab sab to poem men hai, sach men jaan liye, khushi hua....thanks
ReplyDeletesuper duper like.... bahut accha likhe...
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