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Sunday 8 May 2011

ज़ुबान

पक्की सड़कों के किनारे,
बने पत्थर के फुटपाथ,
सजे दिखते  हैं, ऊँचे- ऊँचे,
शीशे के घरों के सामने |

शीशे में दिखती है,                                                                                 
पेड़ों से सजी आँगन,
जहाँ  उनकी शाखें, 
सरहदों को पार कर , पत्तों से: 
उस पत्थर को धूप से बचाती है |

ज़ुबान है पत्थरों और पत्तों के बीच |

मैं तो खुद से भी बात नहीं कर पाता  !



2 comments:

  1. काफी अच्छा विवरण दिया है बेजुबानों की भाषा का. ये कितना सच है, यह ओ हम नहीं जान पाएंगे, परन्तु इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में खुद से न बात कर पाने वाले सत्य से हम सब परिचित हैं |

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  2. @Saswat सच में, खुद से न बात कर पाना कोई बहुत बड़ी impediment लगती है. और इस कविता में मेरा इशारा वो बड़े बड़े corporations कि तरफ भी था . थोड़ी नफरत होने लगी है उन बड़े - ऊँचे शीशे के डिब्बों से..... एक बार सर उठा के उनपर नज़र डालो और दुनया के सारे भूखे, बेघर और बेसहय लोगों कि तस्वीर शीशे में झलक जाती है. एक तरफ a/c fridge और दूसरी तरफ पीने को पानी भी नहीं. और csr के नाम पे भलाई से जादा प्रोफिट हीं. प्रकृति ही अपना देख भाल खुद से कर सकती है..और करती है .. हम लोग तो शायद खो गए.... पता नहीं रास्ता कहाँ और मंजिल कहाँ है....

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