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Friday, 22 April 2011

सुबह डूब जाता है, मगर दिन भर याद आता है

आँखें बंद किये नींद का इंतजार कर रहा था
उस चांदनी से मैं कुछ डर रहा था,
बहुत गोरा है मेरा चाँद
वो चाँद मुझे छेड़ रहा था |

फर्श से टकराकर  कमरे में चारों ओर
फैलने की आदत गयी नहीं है उसकी,
जब तक मेरे अंदर समां न जाये 
फ़रिअद पूरी न होगी उसकी :

कि मेरा अक्स  
अभी तक जाग क्यूँ रहा है ?

कि मेरा सपना 
अभी तक 
देख क्यूँ नहीं रहा है ?

मैंने कहा की छत  पर आ जाता हूँ बात करने,
लेकिन मेरा चाँद - चाँदनी से मुझे डरा रहा है |

उस चांदनी की चौंध में, 
मुझे सुलाने की कोशिश 
उसकी , कामियाब  रोज़ होती है |

मेरा चाँद सुबह तो डूब जाता है,
मगर दिन भर याद आता है |


2 comments:

  1. waah... kya baat hai yaar. kya tulna ki hai tumne chand se apne premika ki :)

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  2. @saswata thanks, feels good when one appreciates. But truly, I would like to have someone like you, who writes and writes good, to show me the deficiencies or ways in which I can make things better. Thanks. :)

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